Monday 31 December 2012

फिर साल ये पिछला हुआ और वर्ष नूतन आ गया

फिर साल ये पिछला हुआ और वर्ष नूतन आ गया
नई खुशियों को उगाने
और उसमे गीत गाने
नई आशा को पिरोने
और उसमे जीत बोने

देखो नया ये भोर है
चिंता नहीं ये डोर है
नव वर्ष की ये धूप है
जय भारती का शोर है
निश्चित गाने का अवसर है, वह साल भी गाता गया
फिर साल ये पिछला हुआ और वर्ष नूतन आ गया

Saturday 29 December 2012

ऐ दिल्ली वालों तनिक डरो


ऐ दिल्ली वालों तनिक डरो
गर यमुना में पानी हो, धर चुल्लू में डूब मरो
काला-तेरा लाल किला है और खाकी वर्दी भी काली है
चीरहरण होते बस चौराहे पर, शर्म करो बस शर्म करो 

दुहसासन-सा बना प्रशाशन, और पुलिस-तंत्र हो गया निकम्मा
सफेद-पोश लाशो-से मंत्री, गद्दी पर है बूढी अम्मा
संविधान की कसमे खा कर, बस इटली का गुण-गान करो
अब संसद की दीवार ढहा दो, नुककड़ नाटक बंद करो ... नुककड़ नाटक बंद करो

Thursday 20 December 2012

विवश-नारी

बहू बिन दहेज नहीं सुहाती मुझे
कोख की मासूमीयत नहीं रिझाती मुझे
हाँ बिल्कुल, बेटे की ज़िद पर, बेटी की इच्छा दबाता हूँ मैं
और पुरुष प्रधान समाज की वेदना भाती मुझे 

तेरी क्या मुझसे समता है
मैं भूल गया,  तू ही माँ की ममता है 

होगी तू बहन किसी की, होगी किसी भाई की पुचकार
भूल जाता हूँ बार-बार, अनसुनी करता करुणचीत्कार
मेरे लिए बस आज बस, तू एक नगर-वधु भर है
मानव हूँ, पर मानवता का करता प्रतिकार 

मैं तो मुग्ध होता हूँ तुझे पीड़ित कर के
हूँ इंसान पर इंसानियत को चकित कर के 

विडंबना है ये कि हूँ दुर्गा का पुजारी
पर खुश होता हूँ देख याचना करती विवश-नारी..... याचना करती विवश-नारी

Friday 23 November 2012


दिन कुछ ऐसे गुजारता कोई
यादों के झरोखों से पुकारता कोई
आई थी तुम ये खुशबू बताती है
बस उस गुलाब की पंखुड़ी बुहारता कोई

Sunday 28 October 2012

हाँ मैंने रावण को जलते देखा है
पर अभी अभी सौ रावण चलते देखा है
यूं ही ठंडी होती है आंच रावण की
क्या खुद में भी रावण बनते देखा है

Monday 24 September 2012

पिता


बरसों बीत गए यूं चलते
हमको यूं मज़बूत बनाते
क्या धूप-छाँव, कब बरसा सावन
हमको बस करने को पावन
दिन-दिन यूं ही बीत गए
विद्यालय हमको पहुँचाते
घिसा अंगोछा, फटी बनियान
पर मेरा कुर्ता सिलवाते

हाँ, हाँ बिलकुल वो पिता हैं मेरे
मेरी किस्मत रचने वाले
अम्बर-सी छत बने रहे,
जब भी छाए बादल काले
जीवन सारा कटा भागते
मुझको नर्म बिछौना लाते
याद जरा तुम कर लो वो पल
जो पंखा झलते थे सिरहाने 

खाले-खाले एक और गिराई,
रोटी मीठी चटनी साथ
ठुमक-ठुमक चलना सिखलाया
थाम मेरे हाथों में हाथ
ठुमक-ठुमक चलना सिखलाया, थाम मेरे हाथों में हाथ.............. 

Saturday 15 September 2012

यह जीवन क्या है पानी है


यह जीवन क्या है पानी है
सुख-दुःख इसके दो सानी हैं
मानो बस एक जल धारा है
जिसमें बहते ही जाना है 

वक़्त का पहिया चलता कहता
चलते जाना बहते जाना
जाना भी है, जल भी गहरा
मेरा-तेरा स्वार्थ का पहरा
चलता चल मत छोड़ प्रयास
फिर पा लेगा जीने की आस
 

क्या कहता जीवन, जी ले मुझको
कर अथक प्रयास फिर पी ले मुझको
सफल-विफल दो अंग हैं मेरे
पतझर-सावन संग हैं मेरे
जो जान गया वो ज्ञानी है
यह जीवन क्या है पानी है

गाँव-शहर


हरे-भरे खेत, वो नीम का पेड़
सरसों के फूल और मवेसियों का घेर
पंचायत का चबूतरा
सुबह का सूरज बीच गाँव उतरा
धोती-कुर्ता और अंगोछे  का लिबास
रोटी-चटनी और छाछ का गिलास
मिटटी की खुशबु और सुबह की ओस
नीले गगन में चहचहाते पंछी
कंधे पे लिए हल, बैलों के संग
चला जा रहा किसान मदहोश

 
अब चलो देखें थोड़ा शहर
समय की कमी से सर पीटता शहर
कंक्रीट के मकान में घर ढूँढता शहर
रिश्तों को मोम सा डेड बनाता शहर
 

ईट पत्थर के कब्रिस्तान में मॉल का लोकार्पण
यानी देशी बाजार में विदेशी माल का समापन
तभी सूट-बूट में कोई सज्जन हमसे टकराए
सर पे हैट, मूँह में लंबी सिगरेट सुलगाए
हाथ में डॉक्टर का प्रेस्क्रिप्सन, बगल में एक्स-रे दबाए
मैने पूछा कौन हो तुम, कहने लगा मैं बार हूँ
पैग की दूकान हूँ, जान लेने को तैयार हूँ
शरीर ही नहीं आत्मा भी पतित करता हूँ
शहर की चकाचौंध में मैं ही तो भ्रमित करता हूँ..... मैं ही तो भ्रमित करता हूँ....

 

 

 

 

ये उजाली भी अब ढल रही है


ये उजाली भी अब ढल रही है
कलकलाती नदी चुप सी बह रही है
शांत से निर्झर में ना संगीत है
इंसान ही इंसान से भयभीत है 

अब पर्वत भी नीचा लगता है
दिन में भी इंसा सोता है
आलाप यहाँ बिखरा सा है
नव गीत धरा पर रोता है

क्यूं गाता मानव खुद का इतिहास
करता है खुद का परिहास
क्यूं दिवा स्वप्न में जीता है
और दिव्य स्वप्नों का होता ह्रास

जीवन क्या है जिन्दा रहना
या फिर बस जीते ही रहने
क्यूं स्वार्थ चुराता परमार्थ का गहना
क्यूं सुख दे जाता औरों का सहना

Tuesday 4 September 2012

माँ

देखो ये बदला वो बदला, मैं भी बदला
पर माँ तुम वैसी की वैसी हो
सर्द में नर्म धूप-सी मीठी
हाँ बिलकुल माँ जैसी हो 

तुम पत्थर ना कोई मूरत हो
माँ, ममता की सूरत हो
चरणों में तेरे है जन्नत
तुम एक सुन्दर महूरत हो 

दूर से सही पर तेरी महक पा लेता हूँ
कुछ याद हैं तेरी लोरियाँ,
बस उन्हें गुनगुना लेता हूँ .... बस उन्हें गुनगुना लेता हूँ

Thursday 30 August 2012


मैं तो शब्दों की पंक्ति हूँ

पर तुम मेरी गीतमाला

चंद्र बदन और चांदनी

चन्दन की पाती हो तुम

तह भुजंग-सी लिपटी सी

केसों की माला हो तुम

मैं हूँ बादल नीले अम्बर का

आकार ना मेरा निश्चित है

सौसौ फूलों की खेती मैं

पर उसकी खुशबू हो तुम

मैं नदियों का संगम हूँ

पर उनकी कल-कल हो तुम

आशा


यूं ही होती हैं रातें

और सोती हैं दिन की बातें

हुआ सवेरा आशा आई

साथ में दिन भर बाधा लायी

छूई-मुई सी हर एक आशा

आश्वासन की हर इक भाषा

 

पीने के पानी की आशा

जीने के सानी की आशा

बिन बादल बारिश की आशा

बेटे-सा वारिश की आशा

 

नेताओं को वोट की आशा

दीन-हीन को रोट की आशा

बिजली-पानी, सड़क-नौकरी

झट पट पा जाने की आशा

 

मात-पिता संतान से आशा

ना ना पुत्री पर पुत्रों से आशा

समय गया फिर वृद्ध हुआ अब्

बूढी लाठी वृधाश्रम से आशा

 
आशा ही आशा को लाती

आशा बिन जीवन ना साथी

आशा बिन जीवन ना साथी

Wednesday 29 August 2012


ए पवन जा बह उधर

मेरे पिता रहते जिधर

हाँ मज़े में हूँ सही

घर नहीं हूँ बस यही

उन्हें कहना जी रहा हूँ

याद को बस पी रहा हूँ

 

उठ रहा हूँ जग रहा हूँ

रात होती सो रहा हूँ

कहना उन्हें की मस्त हूँ

यह ना कहना अस्त हूँ

जो सीख दी वह कर रहा हूँ

है शोर की मैं चल रहा हूँ

है शोर की मैं चल रहा हूँ

पथिक


पथिक बना मैं घूम रहा हूँ

सच्चाई से दूर खड़ा हूँ

खुद की इच्छा खुद में सोई

अनजानी सी रोई-रोई

सच में सच से दूर पड़ा हूँ

अस्तित्व मैं खुद का ढूंढ रहा हूँ

पथिक बना मैं घूम रहा हूँ ....

 

 

मानो मैं का षरयंत्र रचा है

खुद में खुद परतंत्र खड़ा है

देख चमक संसार की सारी

क्रय-विक्र होते नर-नारी

प्रभु की इच्छा क्या कोई जाने

जो स्वयं को शिव से अव्वल माने

 

 

तितर-बितर हो धरम पड़ा है

धीर-धैर्य में रोष अडा है

कौन सावित्री-हरिश्चंद्र थे

मानस-मदिरा मदहोश पड़ा है

 

 

मन-मंदिर मदिरा का प्याला

जपता फिरता मैं की माला

मैं की महिमा सोपान है चढती

आदर-मय मदिरा की शाला

आजादी


इधर उधर चहूँ ओर बजे है आजादी के गीत

देख तिरंगा फहर रहा अम्बर-तारे बीच

तीन रंग सतरंग बना है और जन-गण-मन नवरंग

विजय पताका झूम रहा अशोक चक्र के संग

 

 

दक्षिण में केरल है तो उत्तर में कश्मीर हमारा

गुजरात-असम-अरुणाचल देखो, है नक़्शे में सारा

जय सुभाष बंगाल यहाँ है, अशफाक यहीं के वासी

मंदिर-मस्जिद यहीं खरें हैं, क्या काबा क्या काशी

 

जय हो-जय हो रहमान कहे, गंगा हिंदुस्तान बहे

चन्दन-सा है ताज यहाँ, ईद-दिवाली साथ सजे

 

जो दुश्मन है आँख तरेरे, वहीँ खड़ा सेना का सीना

घुटनों के बल ला खड़ा करे, बहा लहू और पसीना

 

है लोकतन्त्र इसकी पहचान, संयमता में इसकी आन

कलाम विवेकानंद यहीं के, गाँधी-बिस्मिल इसकी शान

 

पर चंदा में भी दाग है देखो, भ्रष्ट राज की ठाठ है देखो

घोटालों की बरात सजी पर भूखों की टूटी खाट है देखो

मंहगाई को लाज ना आई, नेताओं संग ब्याह रचाई

काले-धन, वोटों की माया, घूसखोरी की बिछी चटाई

 

पर ये जो मेरे देश की माटी, शहीदों से है इतराती

हर शाम सुबह ही लाती है, फिर शबनम भी वह बिखराती

वह सूरज, हाँ सूरज फिर से चमकेगा

अंधियारे में दमकेगा

 

पर मत भूलें हम हैं स्वतंत्र, गणतंत्र यहीं है, है लोकतंत्र

विचार हमारे मूल्यवान हो

बस विजय दिवस में सूर्य गान हो

बस विजय दिवस में सूर्य गान हो