बहू बिन दहेज नहीं सुहाती मुझे
कोख की मासूमीयत नहीं रिझाती मुझे
हाँ बिल्कुल, बेटे की ज़िद पर, बेटी की
इच्छा दबाता हूँ मैं
और पुरुष प्रधान समाज की वेदना भाती मुझे
तेरी क्या मुझसे समता है
मैं भूल गया, तू ही माँ की ममता है
होगी तू बहन किसी की, होगी किसी भाई की
पुचकार
भूल जाता हूँ बार-बार, अनसुनी करता करुण–चीत्कार
मेरे लिए बस आज बस, तू एक नगर-वधु भर है
मानव हूँ, पर मानवता का करता प्रतिकार
मैं तो मुग्ध होता हूँ तुझे पीड़ित कर के
हूँ इंसान पर इंसानियत को चकित कर के
विडंबना है ये कि हूँ दुर्गा का पुजारी
पर खुश होता हूँ देख याचना करती विवश-नारी.....
याचना करती विवश-नारी
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