Saturday 15 September 2012

गाँव-शहर


हरे-भरे खेत, वो नीम का पेड़
सरसों के फूल और मवेसियों का घेर
पंचायत का चबूतरा
सुबह का सूरज बीच गाँव उतरा
धोती-कुर्ता और अंगोछे  का लिबास
रोटी-चटनी और छाछ का गिलास
मिटटी की खुशबु और सुबह की ओस
नीले गगन में चहचहाते पंछी
कंधे पे लिए हल, बैलों के संग
चला जा रहा किसान मदहोश

 
अब चलो देखें थोड़ा शहर
समय की कमी से सर पीटता शहर
कंक्रीट के मकान में घर ढूँढता शहर
रिश्तों को मोम सा डेड बनाता शहर
 

ईट पत्थर के कब्रिस्तान में मॉल का लोकार्पण
यानी देशी बाजार में विदेशी माल का समापन
तभी सूट-बूट में कोई सज्जन हमसे टकराए
सर पे हैट, मूँह में लंबी सिगरेट सुलगाए
हाथ में डॉक्टर का प्रेस्क्रिप्सन, बगल में एक्स-रे दबाए
मैने पूछा कौन हो तुम, कहने लगा मैं बार हूँ
पैग की दूकान हूँ, जान लेने को तैयार हूँ
शरीर ही नहीं आत्मा भी पतित करता हूँ
शहर की चकाचौंध में मैं ही तो भ्रमित करता हूँ..... मैं ही तो भ्रमित करता हूँ....

 

 

 

 

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